श्री गुरु नानकदेव जी प्रकाश उत्सव — जीवन, उदासियाँ, यात्रा एवं योगदान

गुरु नानकदेव जी की जीवनलीला, जन्मस्थल, यात्राएँ (उदासियाँ), समकालीन इतिहास, मुगल कालीन परिस्थितियाँ और गुरुपरंपरा का विस्तृत विवरण।

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जन्मस्थान एवं कालखंड 

गुरु नानक का जन्म कार्तिक पूर्णिमा संवत 1526, अर्थात् नवंबर 1462 में, लाहौर से लगभग 65 किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम स्थित तलवंडी गांव में हुआ था। आज यह स्थान ननकाना साहिब के नाम से प्रसिद्ध है। हालाँकि, चार जन्म साखियों — विलायतवाली, मेहरबानवाली, भाई मनी सिंह वाली और खालसा समाचार — में उनकी जन्मतिथि 15 अप्रैल 1469 बताई गई है। फिर भी, सर्वाधिक स्वीकृत तिथि नवंबर 1462 ही मानी जाती है। 

गुरु नानक देव के पिता मेहता कालू चंद एक गांव में पटवारी थे। गुरु नानक देव ने एक ब्राह्मण से हिसाब-किताब और बही-खाते का काम सीखा तथा एक मौलवी से फ़ारसी और अरबी भाषा का अध्ययन किया।

उन्हें अपने पिता की नौकरी या पारिवारिक व्यवसाय से विशेष लगाव नहीं था। विवाह के बाद, गुरु नानक की बहन नानकी उन्हें अपने साथ कपूरथला के पास सुल्तानपुर स्थित अपने घर ले गई, जहाँ गुरु नानक देव दौलतखान लोदी के सरकारी मोदीखाने में भंडारी के रूप में कार्य करने लगे। उन्होंने यह कार्य पूर्ण ईमानदारी से किया, लेकिन उनका मन मानवता की सेवा में अधिक रमता था।

गुरु नानक देव के जीवनकाल को तीन हिस्सों में बाँटा जा सकता है — पहला, प्रारंभिक 27 वर्षों का गृहस्थ और ज्ञान-प्राप्ति का कालखंड; दूसरा, अगले 25 वर्षों तक देश-दुनिया का भ्रमण और अपने विचारों का प्रचार-प्रसार; और तीसरा, अंतिम 18 वर्षों का जीवन, जो उन्होंने रावी नदी के किनारे स्थित करतारपुर में व्यतीत किया।

तत्कालीन देश-दुनिया

गुरु नानक देव का जीवनकाल युगांतरकारी था। उस समय, 1485 में इंग्लैंड में ट्यूडर राजवंश की स्थापना हुई और पूरे यूरोप में आधुनिक युग की शुरुआत हुई। वहाँ इसे पुनर्जागरण (Renaissance), समुद्री अभियानों और धार्मिक सुधारों का युग कहा गया।

इंग्लैंड में कोलेट ने 1510 में सेंट पॉल्स ग्रामर स्कूल की स्थापना की। 1516 में ऑक्सफोर्ड में कॉर्पस ख्रिस्ती कॉलेज की स्थापना हुई, जहाँ यूनानी भाषा पढ़ाने के लिए यूनान से शिक्षक बुलाए गए। इसी प्रकार, 1492 में क्रिस्टोफर कोलंबस ने अमेरिका की खोज की, और वास्को डी गामा ने भारत के लिए समुद्री मार्ग का नेतृत्व किया। मार्टिन लूथर ने 1517 में जर्मनी में धार्मिक सुधार आंदोलन की पहल की, जिससे ईसाइयों में प्रोटेस्टेंट विचारधारा की शुरुआत हुई।

भारत में भी गुरु नानक देव के समकालीन कई महत्वपूर्ण घटनाक्रम घटित हो रहे थे। इस अवधि में भक्ति आंदोलन अपने उत्कर्ष पर था। गुरु नानकदेव के समकालीन संतों में चार प्रमुख नाम थे — वल्लभाचार्य (1449 में जन्म), जिनके अनुयायी गुजरात और राजस्थान में थे; चैतन्य महाप्रभु (1486 में जन्म), जिनका प्रभाव बंगाल में था; मीराबाई (1498 में जन्म), जिनके रचित भगवान् श्रीकृष्ण के भजन आज भी अत्यंत लोकप्रिय हैं; और गोस्वामी तुलसीदास (1532 में जन्म), जिनकी रचना ‘रामचरितमानस’ आज भी संसार के सर्वाधिक पठित महाकाव्यों में से एक है।

भारत में मुस्लिम शासक और मुग़ल  

गुरु नानक देव के कालखंड में भारतीय इतिहास एक महत्वपूर्ण दौर से गुजर रहा था। इस दौरान दिल्ली सल्तनत में बड़े राजनीतिक परिवर्तन देखने को मिले। दरअसल, गुरु नानक देव के जन्म के समय उत्तर भारत में बहलोल लोदी (1451 से 1489 तक) का शासन था।

जब गुरु नानक देव 20 वर्ष के थे, तब सिकंदर लोदी (1489 से 1517 तक) दिल्ली सल्तनत के शासक बने। इसके बाद इब्राहीम लोदी (1517 से 1526 तक) इस वंश का अंतिम शासक रहा। गुरु

नानक देव के जीवनकाल में ही, 1526 में बाबर ने भारत में मुगल साम्राज्य की नींव रखी, और इसी काल में हुमायूँ, मुगल वंश का दूसरा शासक बना।

तत्कालीन मुस्लिम शासन और श्री गुरु नानक देव की वाणी

गुरु नानक देव के समय में इस्लाम धर्म में अधोगति का क्रम प्रारंभ हो गया था। इसलिए गुरु नानक देव जी ने कहा कि यदि कोई मुसलमान धर्म पर गर्व करता है, तो उसे यह समझना चाहिए कि बिना सच्चे गुरु के वह सद्मार्ग नहीं पा सकता। वह अज्ञान और अंधकार में भटकता रहता है, और जो व्यक्ति सच्चे सत्कर्म नहीं करता, वह भला जन्नत में कैसे जा सकता है?

गुरु नानक देव ने अपने समकालीन समय और परिस्थितियों को अपनी वाणी के माध्यम से अभिव्यक्त किया है। उन्होंने तत्कालीन युग के समस्त त्रास, अन्याय और जनजीवन की पीड़ा को गहराई से अनुभव किया, तथा उसके प्रति अपनी करुणा, क्षुब्धता और आक्रोश से युक्त प्रतिक्रियाएँ भी व्यक्त कीं। गुरु नानक देव की यही संवेदनशील दृष्टि उनके द्वारा प्रवर्तित मार्ग की अंतःप्रेरणा बन गई।

कलि काती, राजे कासाई धरमु पंखु करि उडरिआ।

कूडु अमावस, सचु चंद्रमा दीसै नाही, कह चड़िया॥

हउ भालि विकुंनी होई, आधेरै राहु न कोई।

विचि हउमै करि दुखु रोई, कहु नानक किनी बिधि गति होई॥

अर्थात् – राजा कसाई के समान निर्दयी और क्रूर हो गए हैं। वह पुराना आदर्श, जिसमें राजा को प्रजा का पिता माना जाता था, अब समाप्त हो चुका है। उनमें धर्म का कोई अंश शेष नहीं रहा; वह तो मानो पंख लगाकर उड़ गया हो। चारों ओर असत्य का अंधकार फैल गया है, सत्य की ज्योति कहीं दिखाई नहीं देती। ऐसी अव्यवस्था और अराजकता देखकर गुरु नानक व्याकुल हो उठते हैं। अधर्म के गहरे अंधकार में लोगों को मार्ग नहीं मिल रहा है, और समूची जनता अहंकार में फँसकर पथभ्रष्ट होती जा रही है।

आदि पुरख कउ अलहु कहिऐ सेखां आई वारी।

देवल देवतिआ करु लागा, ऐसी कीरति चाली॥

कूजा बांग निवाज मुसला नील रूप बनवारी।

घरि घरि मीआ सभनां जीआं बोली अवर तुमारी॥

जे तू मीर महीपति साहिबु कुदरति कउण हमारी।

चारे कुंट सलामु करहिगै धरि धरि सिफति तुम्हारी॥

अर्थात् – अब तो शेखों का ही बोलबाला हो गया है। इस्लामी तुर्क शासकों के भय से आदिपुरुष परमात्मा को भी ‘अल्लाह’ कहकर पुकारना पड़ रहा है। शासन की व्यवस्था ऐसी बना दी गई है कि मंदिरों और देवताओं पर भी कर (टैक्स) लगाया गया है। भारतीयों को अपनी पूजा-पद्धति तक का इस्लामीकरण करने के लिए बाध्य होना पड़ा है। चारों ओर अज़ान की आवाज़ गूँज रही है, और हालात ऐसे बन गए हैं कि ‘बनवारी’ अर्थात भगवान् कृष्ण को भी नील वस्त्रधारी बताना पड़ रहा है, ताकि विदेशी शासक प्रसन्न रहें। घर-घर में ‘मियाँ-मियाँ’ शब्द गाया जा रहा है; लोगों की बोली और बोलचाल का स्वरूप ही बदल गया है। हर ओर ‘सलाम’ का चलन हो गया है, और सब लोग मुग़ल शासकों की प्रशंसा में रत हैं। गुरु नानक देव जी कहते हैं कि इस कलियुग में विदेशी शासकों ने भारत में शरीअत का शासन लागू कर दिया है, और अब क़ाज़ियों को ही कृष्ण का रूप बताया जा रहा है।

भारत की तत्कालीन राजनीतिक व्यवस्था की विडंबनाओं को भी गुरु नानक देव जी ने अपनी वाणी में उजागर किया है। उन्होंने लिखा है, “कोई ऐसा नहीं है जो रिश्वत लेता या देता न हो; बादशाह की जब तक मुट्ठी गर्म न की जाए, वह न्याय नहीं सुनता।”

मुग़ल आक्रमणकारियों द्वारा आम जनता पर किए गए अत्याचारों को गुरु नानक देव जी ने अपनी आँखों से देखा था। जब बाबर हिंदुस्तान पर आक्रमण की तैयारी कर रहा था, उस समय गुरु नानक देव जी अफ़ग़ानिस्तान में थे और मुस्लिम देशों की यात्राओं से लौट रहे थे।

खुरासान खसमाना कीआ हिंदुस्तानु डराइआ ।

आपै दोसु न देई करता जनु करि मुगल चड़ाइआ ॥

एती मार पई करलाणे तै की दरदु न आइआ ॥੧॥

अर्थात् – हे परमेश्वर! तूने खुरासान की तो रक्षा की, परंतु हिंदुस्तान के हृदय में भय व्याप्त कर दिया। मुग़ल बाबर के रूप में तूने स्वयं यम (मृत्यु) को इस धरती पर भेजा है। इतनी भयानक मारकाट, निर्दोषों की हाहाकार, स्त्रियों और बच्चों के विलाप — इन सबके बाद भी, हे दाता! क्या तेरे हृदय में तनिक भी दया नहीं जागी?

तत्कालीन इस्लामिक शासन में महिलाओं की दुर्दशा का वर्णन गुरु नानक देव ने इस प्रकार किया है :

जिन सिरि सोहनि परीआ माँगी पाइ संधूरू।

से सिरि काती मुनीअन्हि गल विचि आवै धूढ़ि॥

महला अंदर होरीआ हुणि बहणि न मिलन्ह हदूरि॥

अर्थात् – जिनके सिरों को अलंकृत करने वाले केश थे, जिनकी मांग में सौभाग्य का सिंदूर चमकता था, अब वे केश निर्दयता से कैंची से काट दिए गए हैं। जो बहुएँ कभी महलों में सुख और सम्मान के साथ रहती थीं, आज वे सड़कों पर भीख माँगने को विवश हैं; उनका अब कोई आश्रयस्थल नहीं रहा। हे सर्वशक्तिमान प्रभु! धन्य हैं तुम्हारी लीलाएँ — कौन समझ सकता है तुम्हारे खेल को? तुम्हारी माया अपरंपार है, प्रभो, जिसे कोई भी जान नहीं सकता।

इस्लामिक शासन के अधीन भारत में महिलाओं की दुर्दशा पर वह आगे कहते है :

गरी छुहारे खांदीआ माणन्हि सेजड़ीआ।

तिन्‍ह गल सिलका पाईआ, तुटन्हि मोतसरीआ॥

अर्थात् — अब इन स्त्रियों के गलों में रस्सियाँ बाँधकर उन्हें पशुओं की तरह घसीटा जा रहा है। गले की मोतियों की माला टूट चुकी है, और उसके मोती धूल में बिखर गए हैं। उनका सौंदर्य और संपन्नता ही उनके लिए सबसे बड़ा शत्रु बन गए हैं। बर्बर सैनिकों ने उन्हें बंदी बना लिया है और उनकी अस्मिता को रौंद डाला है।

धर्मान्तरण और मुसलमानों में जाति व्यवस्था पर श्री नानक देव जी 

धर्म का वास्तविक स्वरूप लोग भूलते जा रहे थे। समाज में बाह्य आडंबरों और कर्मकांडों का बोलबाला था। अनेक लोग भयवश या मुसलमान शासकों को प्रसन्न करने के लिए कुरान आदि पढ़ने लगे थे। दूसरी ओर, मुसलमान भी अपने ‘असली मज़हब’ से भटक रहे थे। गुरु नानक देव जी ने ‘आसा दी वार’ में इस स्थिति की तीखी आलोचना करते हुए कहा है, “हिन्दू मन इतना निर्बल हो गया है कि उसने मुसलमानों की संस्कृति की दासता स्वीकार कर ली है। वह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में मुसलमानों के समक्ष आत्मसमर्पण कर चुका है।”

भाई गुरुदास जी ने अपनी वारों में तत्कालीन धार्मिक परिस्थिति का इस प्रकार चित्रण किया है, “मुसलमानों में भी अनेक वेश चल पड़े हैं। कोई पीर है, तो कोई पैगम्बर और कोई औलिया। ठाकुरद्वारों को गिरा कर उनके स्थान में मस्जिदों का निर्माण किया गया है। गौ और गरीबों की हत्या करते हैं। इस भांति पृथ्वी के ऊपर पाप का विस्तार हो गया है।  

श्री गुरु नानक देव जी और इस्लाम – लेखकों और व्यक्तित्वों की दृष्टि में 

बलदेव वंशी ‘भारत के महान संत’ में लिखते हैं : “सिख धर्म के संस्थापक और सिखों के प्रथम गुरु, गुरु नानक देव जी का जन्मदिन प्रति वर्ष बड़े धूमधाम और श्रद्धापूर्वक मनाया जाता है। बचपन से ही उनकी प्रवृत्ति धर्म और अध्यात्म की ओर थी। उनका काल (1469–1539) उथल-पुथल, अव्यवस्था, उत्पीड़न, असमानता और अन्याय से भरा हुआ था। मुगल बादशाह बाबर के शासन की स्थापना भी उसी समय हुई, जिसका कटु अनुभव गुरु नानक देव जी ने स्वयं यातनाएँ सहकर किया था। राजनीतिक अराजकता से त्रस्त सामान्य जन का आत्मविलाप सुनने वाला कोई नहीं था। सामाजिक विपत्तियों से जूझ रहे लोगों के मध्य रामानंद और कबीर (उत्तर भारत में), तथा ज्ञानदेव, नामदेव और एकनाथ (महाराष्ट्र में) अपनी संवेदनशील और अध्यात्ममय वाणी से लोगों में आत्म एवं परमात्मा के प्रति विश्वास और अध्यात्म-साम्य की भूमि तैयार कर चुके थे। ऐसे समय में गुरु नानक देव जी ने पूरे भारतवर्ष में ही नहीं, बल्कि मदीना, बगदाद, तुर्किस्तान, काबुल और तिब्बत जैसे देशों में भी भ्रमण कर अपने निर्गुणपंथी, मानवतावादी, समतामूलक और निर्भय एकेश्वरवादी विचारों का व्यापक प्रसार किया।“

महात्मा गाँधी के अनुसार : “जब ईसा के 100 वर्ष बाद इस्लाम के अनुयाइयों ने भारत पर चढ़ाई की, तब हिन्दू धर्म किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया। उसे ऐसा लगा कि इस्लाम को सफलता मिलकर रहेगी। जातिभेद से त्रस्त जनता पर समता के सिद्धांत का प्रभाव पड़े बिना नहीं रह सकता था। इस आंतरिक शक्ति के साथ तलवार की ताकत भी जोड़ दी गई। ये कट्टर हमलावर, जो समय-समय पर भारत में आ घुसते थे, यदि समझा-बुझाकर संभव न होता तो तलवार के बल पर धर्म-परिवर्तन करने में हिचकते नहीं थे। मूर्तियों पर मूर्ति तोड़ते हुए उन्होंने लगभग सारा देश रौंद डाला और यद्यपि राजपूती शौर्य हिंदुत्त्व की ओर था, किन्तु वह इस्लाम के अचानक हमले से उसकी रक्षा करने में असमर्थ रहा।… जहाँ से होकर मुसलमान विजेता भारत में बड़ी संख्या में घुसे और जिसने उनकी पहली अनीको झेला उस पंजाब ने सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक को जन्म दिया। उन्होंने  अपने धर्म के सिद्धांत कबीर से लिए और उनमे लड़ाकू हिन्दू-तत्व को मिलाया। उन्होंने मुस्लिम भावनाओं का आदर करते हुए समझोते के लिए हाथ बढ़ाया, किन्तु यदि वह स्वीकार नहीं किया गया तो ये हिन्दू धर्म की इस्लाम के आक्रमण से रक्षा करने के लिए भी उतने ही तैयार थे। और इस तरह सिख धर्म इस्लाम का सीधा परिणाम था।“

श्री गुरु नानक देव की उदासियाँ (यात्रायें)

गुरु नानकदेव जी की उदासियों (यात्राओं) का उद्देश्य पृथ्वी पर रहने वाले प्राणियों को परिष्कृत और प्रबुद्ध करना था। यह उद्देश्य अपने-आपमें बहुत रचनात्मक और महत्त्वपूर्ण था। इसलिए, गुरु नानक ने जो उदासी की रीत चलायी, उस उद्देश्य के लिए बड़े साहस के साथ, उन्होंने पहले पूरे पंजाब में, फिर भारत में और फिर भारत के बाहर प्रचार किया। यद्यपि मध्य युग में किसी भारतीय का भारत से बाहर जाना एक क्रांतिकारी घटना माना जाता था, गुरु नानकदेव जी ने ऐसा करने में संकोच नहीं किया। 

गुरुनानक देव ने पांच व्यवस्थाओं पर अधिक बल दिया – (1) नाम स्मरण, (2) दान, (3) स्नान, (4) सेवा, और (5) भजन अथवा स्तुति। ज्ञान की प्राप्ति के बाद गुरुनानक देव ने भंडारी की अपनी नौकरी छोड़ दी और अपने पवित्र उद्देश्य के लिए देश-दुनिया की यात्रायें शुरू कर दी। उन्होंने चार मुख्य यात्राएँ की : 

  • सबसे पहले 1497 से 1509 तक पूर्वी भारत में रहे। इस काल में उन्होंने हिन्दू तीर्थस्थानों का भ्रमण किया। 
  • फिर 1510 से 1515 तक श्रीलंका सहित दक्षिण भारत की यात्रा की। 
  • वर्ष 1515 से 1517 तक की अवधि में उन्होंने हिमालय की ओर रुख किया। वे योगियों और सिद्धों के केंद्र, तिब्बत में मानसरोवर तक गए। इस दौरान उनका शैव मत के गुरु गोरखनाथ और गुरु मछेंद्रनाथ के कई अनुयायियों से संपर्क हुआ। 
  • वर्ष 1517 से 1521 तक गुरुनानक देव ने पश्चिम में मुस्लिम देशों का दौरा किया। इस बार उनके साथ भाई मर्दाना भी साथ थे। अपनी इस यात्रा में वे तत्कालीन मुस्लिम खलीफा की राजधानी बगदाद तक गए थे। 

सुरिंदर सिंह कोहली के अनुसार : “गुरु नानक ने अधिकांश यात्राएँ पैदल ही कीं। उन्हें रेगिस्तानों से होकर गुजरना पड़ा, ऊँचे पहाड़ों पर चढ़ना पड़ा, नदियों और नालों को पार करना पड़ा और उपजाऊ मैदानों से होकर यात्रा करनी पड़ी। जब उन्होंने द्वीपों या समुद्र के रास्ते से पहुँचे जाने वाले दूर-दराज़ स्थानों की यात्रा की, तब उन्हें समुद्र भी पार करना पड़ा। अपने जीवन के कई वर्षों तक उन्होंने लगातार यात्रा की, और उनके साथ एक या दो साथी होते थे। उनके पास एक पवित्र मिशन था, और उसका निर्वहन किसी चमत्कार से कम नहीं था।“

हिन्दू मंदिरों एवं पवित्र स्थलों के दर्शन 

गुरु नानक देव जी जगन्नाथ पुरी की यात्रा करना चाहते थे, जो हिन्दुओं के प्रमुख धार्मिक केंद्रों में से एक है। ऐसा माना जाता है कि अपने नियमित साथियों के अतिरिक्त उनके साथ बंगाल के महान वैष्णव संत श्री चैतन्य महाप्रभु भी इस यात्रा में शामिल थे। गुरु नानक देव जी ने कटक में महानदी के तट पर विश्राम किया और वहाँ स्थित प्राचीन धवियेश्वर महादेव मंदिर का दर्शन किया। जहाँ उन्होंने विश्राम किया था, उस स्थान पर आज एक ऐतिहासिक गुरुद्वारा बना हुआ है, जिसे गुरुद्वारा गुरु नानक दातन साहिब या गुरुद्वारा कालियाबोड़ा के नाम से जाना जाता है।

बिदर से गुरु नानक देव जी गोलकुंडा (आंध्र प्रदेश) की ओर गए। वहाँ से वे विजयवाड़ा, गुंटूर और महबूबनगर होते हुए पुनः कर्नाटक के क्षेत्र में प्रवेश किए। उन्होंने रायचूर ज़िले से होकर यात्रा की और आगे बेल्लारी ज़िले पहुँचे, जहाँ उन्होंने हम्पी का भ्रमण किया। हम्पी उस समय विजयनगर साम्राज्य की राजधानी थी और वहाँ अनेक प्राचीन मंदिर थे, जिनका दर्शन गुरु नानक देव जी ने किया। इसी क्षेत्र में उन्होंने आनगुंडी गाँव (प्राचीन किष्किंधा) का भी भ्रमण किया। तुंगभद्रा नदी के तट पर स्थित यह स्थान पौराणिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है – यहाँ बाली का दरबार, लक्ष्मी नरसिंह मंदिर और चिंतामणि गुफा मंदिर प्रसिद्ध हैं। कहा जाता है कि यहीं पर भगवान् श्रीराम ने बाली का वध किया था, और उसके बाद जिस गुफा में वे विश्राम किए, वह आज भी विद्यमान है। उस गुफा के पीछे हनुमान की पहाड़ी स्थित है। बेल्लारी ज़िले से गुरु जी आंध्र प्रदेश के अनंतपुर ज़िले पहुँचे। वहाँ से उन्होंने अनंतपुर, कडप्पा और चित्तूर ज़िलों का भ्रमण किया। इसके पश्चात् वे कर्नाटक के बैंगलोर, मांड्या और मैसूर ज़िलों की ओर बढ़े। मांड्या ज़िले में उन्होंने मद्दूर और श्रीरंगपट्टनम् (सेरिंगपटम) का दौरा किया। मद्दूर से लगभग बारह मील की दूरी पर स्थित रामगिरि पर्वत पर उन्होंने दर्शन किए, जहाँ कोदंडरामस्वामी मंदिर है। इस मंदिर में भगवान् श्रीराम, लक्ष्मण और सीता की मूर्तियाँ प्रतिष्ठित हैं। किंवदंती है कि इस पहाड़ी पर सुग्रीव का निवास स्थान था। श्रीरंगपट्टनम् (प्राचीन श्रीरंगपट्टन) में हैदर अली और टीपू सुल्तान के काल से भी पहले का एक प्राचीन किला था। किले के भीतर भगवान् श्रीरंगनाथ का एक हिंदू मंदिर था, जिसके अवशेष आज भी मौजूद हैं। कावेरी नदी के बीच स्थित तीन द्वीपों पर श्रीरंगनाथ के तीन मंदिर हैं, जो अत्यंत प्रसिद्ध हैं। बैंगलोर में आदि शंकराचार्य का एक मठ, एक प्राचीन शिव मंदिर तथा अनेक अन्य देवालय हैं। मैसूर में श्रृंगेरी शंकराचार्य का मठ और चामुंडा देवी का मंदिर स्थित है। किंवदंती के अनुसार, मैसूर (प्राचीन महिषासुर नगर) में देवी चामुंडा ने महिषासुर का वध किया था। चामुंडा पहाड़ी पर देवी के मंदिर के समीप महिषासुर की एक विशाल प्रतिमा आज भी इस घटना की स्मृति में स्थापित है।  

रामेश्वरम् में गुरु नानक देव जी ने उस अत्यंत पूजनीय शिव मंदिर का दर्शन किया,
जिसे परंपरा के अनुसार भगवान् श्रीराम द्वारा स्थापित माना जाता है। यह मंदिर सीता की खोज में श्रीराम के लंका गमन से जुड़ा हुआ है। रामेश्वरम् का यह मंदिर बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक माना जाता है और भारत के सबसे पवित्र तीर्थस्थलों में इसका विशिष्ट स्थान है।

गुरु नानक देव जी ने महाराष्ट्र की भूमि को दो बार स्पर्श किया – पहली बार अपनी दूसरी उदासी (यात्रा) के दौरान जब वे दक्षिण भारत की ओर जा रहे थे, और दूसरी बार लौटते समय। अपनी बाहरी यात्रा के दौरान गुरु नानक देव जी मध्यप्रदेश के बालाघाट से होते हुए महाराष्ट्र के रामटेक पहुँचे। रामटेक नागपुर से लगभग चौबीस मील उत्तर दिशा में स्थित है। रामटेक के समीप ही रामगिरि नामक एक पर्वत है, जिसकी चोटी पर श्रीराम मंदिर स्थित है। इस मंदिर में भगवान् श्रीराम, लक्ष्मण और सीता की मूर्तियाँ प्रतिष्ठित हैं। कहा जाता है कि गुरु नानक देव जी यहाँ चार महीने तक रुके थे। उसी क्षेत्र में गणपत्‍य सम्प्रदाय के प्रसिद्ध आचार्य ‘जोगन प्रकाश’ निवास करते थे। वे गुरु नानक देव जी के व्यक्तित्व और उपदेशों से अत्यंत प्रभावित हुए और अपने अनुयायियों सहित उनके शिष्य बन गए। रामटेक में आज भी गुरु नानक देव जी की यात्रा की स्मृति में एक स्मारक (गुरुद्वारा) स्थापित है, जो उनके दक्षिण भारत प्रवास और आध्यात्मिक संदेश के ऐतिहासिक प्रमाण के रूप में विद्यमान है।

गिरनार से गुरु नानक देव जी दक्षिण की ओर बढ़ते हुए प्रसिद्ध प्रभास क्षेत्र पहुँचे,
जिसमें वेरावल और सोमनाथ — ये दोनों प्राचीन बंदरगाह शामिल हैं। वेरावल और पाटण सोमनाथ के मध्य स्थित ‘भालका तीर्थ’ मंदिर भगवान् श्रीकृष्ण के महाप्रयाण (निधन) की स्मृति में स्थापित है। इसी क्षेत्र में त्रिवेणी संगम भी है, जहाँ तीन नदियाँ—हिरण, कपिला और सरस्वती—का संगम होता है। सोमनाथ अपने ऐतिहासिक ज्योतिर्लिंग मंदिर के लिए प्रसिद्ध है, जिसे मह्मूद गजनवी ने सन् 1024 ई. में ध्वस्त कर दिया था। यह क्षेत्र, अर्थात् सोमनाथ-पाटन और वेरावल, शैव और वैष्णव — दोनों परंपराओं के लिए अत्यंत पवित्र माना गया है।

द्वारका (या गोमती द्वारका) प्रायद्वीप के पश्चिमी सिरे पर स्थित है। परंपरा के अनुसार,
भगवान् श्रीकृष्ण ने मथुरा से आने के बाद इसी स्थान पर द्वारका नगर की स्थापना की थी। यह हिन्दुओं के सात प्रमुख तीर्थ स्थलों (सप्तपुरी) में से एक मानी जाती है। द्वारका का प्रमुख मंदिर ‘द्वारकानाथ मंदिर’ है, जिसे भगवान् श्रीकृष्ण के सम्मान में निर्मित किया गया। द्वारका के समीप समुद्र में स्थित एक छोटा द्वीप ‘बेट द्वारका’ कहलाता है। यह स्थान भगवान् विष्णु से संबंधित है, जिन्होंने यहाँ शंखासुर नामक असुर का वध किया था और उसकी पत्नी को ‘तुलसी’ के रूप में परिवर्तित कर दिया था। इसी घटना की स्मृति में यहाँ भगवान् विष्णु का एक मंदिर है, जो परंपरा के अनुसार श्रीकृष्ण की पत्नी सत्यभामा को समर्पित है। बेट द्वारका में गुरु नानक देव जी की यात्रा की स्मृति में एक धर्मशाला (स्मारक) स्थापित है, जो इस तथ्य की गवाही देती है कि गुरु नानक देव जी यहाँ आए थे और उन्होंने धर्म, समानता तथा ईश्वर-एकत्व का संदेश दिया था।

आशापुरी देवी के मंदिर के दर्शन करने के बाद गुरु नानक देव जी लखपत पहुँचे, जो कोरी क्रीक के समुद्र तट पर स्थित एक प्राचीन बंदरगाह है। लखपत से आगे बढ़कर उन्होंने सिंध प्रदेश में प्रवेश किया।

कांगड़ा में गुरु नानक देव जी ने महामाया मंदिर के दर्शन किए, जो 51 शक्तिपीठों में से एक अत्यंत प्रसिद्ध मंदिर माना जाता है। कांगड़ा से वे धर्मशाला होते हुए चंबा पहुँचे। चंबा उस समय अपने प्राचीन श्री लक्ष्मीनारायण मंदिर के लिए प्रसिद्ध था। यह संभावना है कि चंबा क्षेत्र में गुरु नानक देव जी ने भरमौर का भी भ्रमण किया, जिसे नौ नाथों और चौरासी सिद्धों की तपोभूमि कहा जाता है, साथ ही उन्होंने पवित्र मणिमहेश झील के दर्शन भी किए होंगे। चंबा से लौटकर गुरु नानक देव जी पुनः कांगड़ा आए और वहाँ से उन्होंने ज्वालामुखी देवी के प्राचीन मंदिर का दर्शन किया, जो कांगड़ा से नादौन जाने वाले मार्ग पर स्थित है।

गुरु नानक देव जी ने श्रीनगर के प्रमुख तीर्थ स्थल — शंकराचार्य मंदिर — का दर्शन किया। यह मंदिर शंकराचार्य पहाड़ी की चोटी पर स्थित है और भगवान् शिव को समर्पित है। श्रीनगर में एक अन्य प्रसिद्ध मंदिर भी है — रघुनाथ मंदिर, जो शहर का सबसे बड़ा हिंदू मंदिर माना जाता है। इस मंदिर के विशाल प्रांगण में संस्कृत के प्राचीन विद्यालय (पाठशालाएँ) स्थित थीं, जहाँ विद्वानों द्वारा वेद-वेदांगों का अध्ययन और अध्यापन किया जाता था। यह संभावना है कि गुरु नानक देव जी ने इस रघुनाथ मंदिर का भी भ्रमण किया और वहाँ के शैव संन्यासियों और विद्वानों से आध्यात्मिक चर्चा (संवाद) किया होगा।

गुरु नानक देव जी ने अपनी यात्राओं (उदासियों) के दौरान भारत के सुदूर पूर्वोत्तर क्षेत्रों — अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम — तक का भी भ्रमण किया। इन क्षेत्रों में साधु-संन्यासियों को ‘लामा’ कहा जाता है, और गुरु नानक देव जी को वहाँ ‘नानक लामा’ के नाम से जाना जाता है। उनकी साधना, करुणा और उपदेशों ने वहाँ के लोगों को गहराई से प्रभावित किया। आज भी अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम के अनेक बौद्ध मठों में गुरु नानक देव जी की पूजा होती है।

सिक्किम में तो गुरु नानक देव जी की स्मृति में एक ऐतिहासिक गुरुद्वारा भी निर्मित है। स्थानीय परंपराओं के अनुसार, सैकड़ों वर्ष पूर्व गुरु नानक देव जी इन दुर्गम पर्वतीय क्षेत्रों में पहुँचे, वहाँ के निवासियों को एकत्रित कर उनसे संवाद किया और उन्हें सत्य, समानता व ईश्वर-भक्ति का संदेश दिया। पूरा हिमालयी क्षेत्र उनके पदचिह्नों से आलोकित है।

पंजाब के इतिहास में गुरु नानक देव जी की इन यात्राओं को ‘उदासियाँ’ कहा गया है।
अपने जीवनकाल में उन्होंने लंबी यात्राएँ कीं, जो न केवल भारतवर्ष में बल्कि उसके बाहर भी हुईं — तिब्बत, नेपाल, श्रीलंका और अरब देशों तक उन्होंने अपने उपदेशों का प्रसार किया।

श्री गुरु नानक देव जी की प्रमुख पदयात्राओं के स्थल इस प्रकार हैं — सैयदपुर (सैदपुर), कुरुक्षेत्र, हरिद्वार, नानकमत्ता, टांडा, अयोध्या, प्रयाग, बनारस, चंदौली, गया, हाजीपुर (पटना), ढाका, जगन्नाथ पुरी, गुंटूर, कांचीपुरम, तिरुवनंतपुरम, लंका, सेतुबंध-रामेश्वरम, बीदर, नांदेड, नर्मदा नदी के तट, गिरनार पर्वत (सौराष्ट्र), जूनागढ़, उज्जैन, मथुरा, दिल्ली, पानीपत, सुल्तानपुर, पट्टी के ज़मींदारों को उपदेश, और तलवंडी (ननकाना साहिब)।   

गुरु नानक देव जी के समय में लगभग समूचा भारत विदेशी इस्लामी शक्तियों से न केवल आक्रांत था, बल्कि विदेशी शासक भारतीयों को बलपूर्वक इस्लाम में परिवर्तित भी कर रहे थे। देश में भय, निराशा और असहायता का वातावरण व्याप्त था। ऐसे समय में गुरु नानक देव जी की इन यात्राओं या उदासियों ने देश में से इस निराशा के वातावरण को दूर करने में बहुत सहायता की। अपनी इन यात्राओं में वे भारत के जन-जन से संवाद स्थापित कर रहे थे। अपनी वाणी और काव्य रचना से उनके मन के भीतर के अन्धकार दूर कर रहे थे। गुरु नानक देव जी की ये यात्राएँ महज यात्राएँ नहीं थीं बल्कि भारत का पुनर्जागरण काल था।   

गुरुपरंपरा और करतारपुर में देहावसान 

गुरु नानक देव जी का देहावसान 22 सितंबर 1539 को करतारपुर (वर्तमान पाकिस्तान में स्थित) में हुआ। अपनी मृत्यु से पूर्व गुरु नानक देव जी ने अपने प्रमुख शिष्य भाई लहणा जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। एक विशेष समारोह में गुरु नानक देव जी ने भाई लहणा जी के समक्ष एक नारियल और पाँच पैसे रखे, फिर स्वयं अपना सिर उनके चरणों से स्पर्श कराया और उन्हें ‘गुरु अंगद’ नाम से संबोधित किया। इस प्रकार गुरु नानक देव जी ने गुरुपरंपरा (गुरुपद) की स्थापना की, जो आगे चलकर सिख धर्म की आधारशिला बनी।

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