वामपंथ का नया अवतार: वोकिज्म से कल्चरल मार्क्सिज्म की ओर

वोकिज्म भारत में नया नया है, लेकिन अमेरिका को खोखला कर चुका है। पूरा अमेरिका सांस्कृतिक तौर पर ढहने की कगार पर है। अमेरिका के बाद अब यह यूरोपियन देशों में भी अपनी जगह बना रहा है। वोकिज्म शब्द वोक से बना है। वोक यानि जगा हुआ। यह वामपंथ का नया चेहरा है। वामपंथ एक ऐसी विचारधारा है जो वर्ग संघर्ष और घृणा पर आधारित है। यहॉं रिलिजन और देश प्रेम के लिए कोई स्थान नहीं। पहले वर्ग संघर्ष का इनका आधार आर्थिक था। ये औद्योगिक क्रांति की बात करते थे। इसके लिए इन्होंने मजदूर-मालिक, किसान-जमींदार जैसे शोषित और शोषकों के वर्ग खड़े किए, आपस में घृणा पैदा की, जिसे अराजकता की सीमा तक ले गए। लेकिन देशों को तोड़ने का इनका यह प्रयोग अधिक सफल नहीं हुआ। उल्टे कम्युनिस्ट USSR टूट गया।

क्लासिकल मार्क्सिज्म (जिसका आधार आर्थिक था) की असफलता के बाद मार्क्सवाद के सिद्धांतकारों को लगा कि अब क्रांति बंदूक से सम्भव नहीं, तब इन्होंने अपना रूप बदल लिया। इस बार ये सोशल जस्टिस, एनवायरमेंटल जस्टिस और महिला अधिकारों के पैरोकारों के अवतार में हैं। अब इनका लक्ष्य संस्कृति, समाज और युवा हैं। इसे कल्चरल मार्क्सिज्म कहा जा रहा है। वोकिज्म इसी का रूप है। वोकिज्म के मुख्य रूप से चार पिलर हैं- पहला एक्सट्रीम इंडीविजुएलिटी, दूसरा फ्री सेक्स, तीसरा विकृत नारीवाद (pervert feminism) और चौथा ट्रांसजेंडरवाद (transgenderism)।

इंडीविजुएलिटी के मामले में ये कहते हैं कि रेस, जाति, रिलिजन ये सब परिवार से मिलते हैं, यदि तुम इनसे दूर रहना चाहते हो तो परिवार को छोड़ दो। अपनी पारिवारिक पहचान मिटा दो क्योंकि ये तुम्हें परिवार से मिलते हैं। तुम्हारा शरीर, तुम्हारी इच्छाएं तुम्हारी हैं, तुम वह करो जो तुम्हारा मन करता है। यहॉं ये माता पिता को शोषक और बच्चों को शोषित सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। फिर ये कहते हैं फ्री सेक्स में बुराई क्या है। जब जो तुम्हें अच्छा लगता है उसके साथ रहो। शादी भी मन हो तो करो नहीं तो मत करो, क्यों बंधन में बंधना? जीवन मौज मस्ती के लिए है, क्यों एक जगह टिकना और क्यों बच्चों का बोझ उठाना? ये लिव इन को बढ़ावा देते हैं। यहॉं इनकी दृष्टि में समाज शोषक है और रीति रिवाज पिछड़ेपन की निशानी। ऐसे ही इनका नारीवाद भी विकृत रूप में सामने आता है। यहॉं इनका कहना है कि एक स्त्री परिवार में कभी खुश रह ही नहीं सकती। संयुक्त परिवार में तो बिल्कुल नहीं। सारी जिम्मेदारियां महिला पर ही लाद दी जाती हैं। वह अपना करियर नहीं बना पाती। पूरी उम्र बच्चे पालती है, घर के काम करती है। वह एकल परिवार में है तो कहते हैं पति शोषक है और “marriage is a license for prostitution”। फिर ये कहते हैं लड़का लड़की बायोलॉजीकली अलग अलग नहीं हैं। बच्चे को जेंडर उसके माता पिता व डॉक्टर पैदा होने के समय देते हैं। इनके अनुसार जेंडर एक कल्चरल कंस्ट्रक्ट है। बच्चा जब 4-5 वर्ष का हो जाता है तब उसे पता चलता है कि वह लड़का है या लड़की। अमेरिका में छोटे छोटे बच्चों को स्कूल में यह सब बताया / सिखाया जाता है। फिर यदि 10-12 वर्ष की कोई बच्ची यह कहे कि मैं लड़का हूं, तो बिना माता पिता को बताए या बिना उनकी अनुमति के वह हॉर्मोनल ट्रीटमेंट ले सकती है, सर्जरी करवा सकती है। माता पिता कुछ कहें तो उन पर मुकदमे चलाए जाते हैं।

पुस्तक टर्माइट के लेखक अभिजीत जोग एक इंटरव्यू में कहते हैं कि, “भारतीय समाज में जिस प्रकार जातिवाद का जहर घोला जाता है, वैसे ही अमेरिका में नस्लवाद है, गोरा बनाम काला। वहां के गोरे बच्चों पर अपराध भावना और काले बच्चों पर विक्टिम हुड थोपी जाती है। बच्चे भारतीय हैं तो उनसे उनकी जाति पूछी जाती है। स्कूल में छोटे छोटे बच्चों को पढ़ाया जाता है, तुम गोरे हो तुम्हारे पूर्वजों ने कालों पर बहुत अत्याचार किए हैं। बच्चे असहज हो जाते हैं। अपराध भावना बढ़ने पर वे भी शोषित बनना चाहते हैं।” जोग कहते हैं, “वे अपना रंग तो बदल नहीं सकते, उन्हें जेंडर बदलने का खयाल आता है। लड़की कहती है, मुझे लगता है मैं लड़का हूं। वह स्वयं को ट्रांसजेंडर घोषित कर देती है। शोषित बनते ही अपराध भावना समाप्त हो जाती है। फिर स्कूलों में ट्रांसजेंडर को हीरो की तरह प्रस्तुत किया जाता है, इससे भी बच्चे इस ओर आकर्षित होते हैं। वे LGBTQ में Q यानि Queer के बारे में बताते हुए कहते हैं कि वहॉं यदि किसी बच्चे को लगे कि वह कैट है तो आपको मानना पड़ेगा कि वह कैट है, आप कुछ नहीं कर सकते। वहॉं के किसी स्कूल में कोई बच्ची दोनों हाथों और  पांवों पर चलने लगी, म्याऊं म्याऊं आवाज निकालने लगी, बोली मुझे लगता है मैं बिल्ली हूं, तो स्कूल प्रशासन कुछ नहीं कर सका। ऐसे ही वह ऑस्ट्रेलिया का एक उदाहरण देते हैं कि वहां 25 लड़के इकट्ठे हो गए और भौं भौं की आवाज निकालने लगे, बोले हमें लगता है हम कुत्ते हैं। अमेरिका में हालात यहॉं तक पहुंच गए हैं कि किसी लड़के ने यह घोषित कर दिया कि उसे लगता है वह लड़की है, तो वह लेडीज ट्वायलेट में जा सकता है। किसी आदमी को रेप के मामले में जेल हुई, उस आदमी ने कहा मुझे लगता है मैं स्त्री हूं, तो उसे जेल में महिला सेल में रखा जाएगा।  यानि महिला सुरक्षा से अधिक मायने किसी ट्रांसजेंडर के अधिकार रखते हैं। मजे की बात यह है कि उसे बस लगना चाहिए, इसके लिए कोई बॉयोलॉजिकल प्रमाण देने की भी आवश्यकता नहीं है।

आज भारत में भी कॉमन ट्वायलेट्स की मांग जोर पकड़ने लगी है। मेट्रो सिटीज में लिव इन रिलेशनशिप सामान्य बात है। समलैंगिक विवाह भी अजूबे नहीं रह गए। पिछले वर्ष एक लड़की ने स्वयं से शादी (sologamy) कर ली। ब्रेक अप और तलाक उत्सव की तरह मनाए जा रहे हैं। हिन्दू त्यौहारों ही नहीं विवाह परम्पराओं, रीति-रिवाजों पर भी उंगलियां उठायी जा रही हैं। आलिया भट्ट ने एक विज्ञापन में कन्यादान पर प्रश्न खड़े किए हैं। आमिर खान की सीरीज सत्यमेव जयते में कमला भसीन के एक वीडियो में पति को पालक तो पत्नी को दासी बताया गया है। जेएनयू में कुछ जागे हुए छात्र (वोक) स्वयं को शिखंडी बताकर प्रसन्न हो रहे हैं। ये छात्र मूंछें रखते हैं और साड़ी पहनते हैं, बिंदी और लिपस्टिक भी लगाते हैं। चिंता की बात यह है कि हमारे कुछ मी लॉर्ड भी उनके समर्थक हैं।

वोकिज्म भारत के दरवाजे खटखटा रहा है। वह बाहर ही रहे, इसके लिए आवश्यक है हम इस अदृश्य दुश्मन को पहचानें। अपने बच्चों को उनके लक्षण बताएं और अपनी संस्कृति पर गर्व करें।

– डॉ. शुचि चौहान

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