चतड़ा-चौथ भादूड़ो… दे दे मांई लाडूड़ो…बचपन की वो गणेश चतुर्थी

नीलू शेखावत / कहीं के बप्पा, कहीं के दादा, कहीं के राजा पर हमारे तो रणतभँवर के राजवी। हम उन्हें जब भी बुलाते हैं, रणतभँवर से ही बुलाते हैं। स्पष्ट है वे भी वहीं पर विराजते हैं। इसलिए हमारा उनसे पत्र व्यवहार भी उसी पते पर होता है।

राजस्थान का हर व्यक्ति चाहे वह यहाँ रहे या देश-विदेश, अपने यहाँ होने वाले हर शुभ काम में प्रथम निमंत्रण रणतभँवर के नाम लिखता है और इस विश्वास के संग भेजता है कि वे इसे अवश्य स्वीकार करेंगे और आयेंगे भी। धन या सुविधा के अभाव में इन बड़े राजाजी के दरबार में उपस्थिति भले ही न लगा पाएं, पर चिट्ठी-पत्री तो भारतीय डाक के चलते संभव है ही। डाकिया उनके नाम की चिट्ठी बड़े प्रेम और आदर से लेते हैं और तत्परता से रणतभँवर पहुँचाते हैं। पुजारी जी सेवाभाव से उसे गणेश जी को बांचते हैं। (ऐसा सुना है)

मैं सोचती हूँ, डिजिटल युग में पत्र लिखना जब बंद ही हो गया है, मनीऑर्डरों का काम ऑनलाइन बैंकिंग ने ले लिया है, तब भारतीय डाक कुछ पार्सलों के सहारे स्वयं को कब तक जीवित रखेगी? डाक बंद हुई तो हमारा एक बड़े घर से सम्पर्क बंद न हो जायेगा? संभव है ऐसी स्थिति में गणेश जी को स्मार्ट फोन थमा दिया जाए, मेल या एसएमएस सब जगह चलेंगे तो रणतभँवर के भी चलेंगे ही। खैर यह तो भाव और विनोद है। गणाधिपति गणपति तो सर्वदा सर्वत्र विराजमान हैं।

परमाणु स्वरूपेण केचित्तत्र गणेश्वरा:।
केचित्तत्रसरेणुभि: समाने देहधारका:।।

उन्हें पृथक पृथक देश कालों में चाहे भिन्न भिन्न नाम रूपों से जाना जाता हो, पर उनके प्रति सबका श्रद्धाभाव एक-सा है। शैव और शाक्तों की तरह एक समय में गाणपत्य संप्रदाय भी अपने परम वैभव पर रहा। लेकिन हम सनातनी किसी भी विचार या विग्रह को एक परिधि में कब बंधा रहने देते हैं। गणपति को सबने सिर आँखों लगाया। हमने सब देवों का मेल करा दिया, अपने छोटे से पूजा के कोने में। देव तो देव, हमने सगुण- निर्गुण को भी एक कर दिया। बना लें, जिन्हें अपने बाड़े बनाने हों। यहाँ तो निर्गुण संगत में भी पहला भजन ‘महाराज गजानन आओ जी’ गाया जायेगा। पहले गणपति पीछे सब। घर के प्रथम द्वार पर गणपति, ग्रंथ के पहले पृष्ठ पर गणपति, शास्त्र के मंगलाचरण में गणपति और लोक जीवन की कथा, गाथा और गीतों में गणपति हैं।

गणेश चतुर्थी राजस्थान में ‘चतड़ा चौथ’ के नाम से जानी जाती है। यह दिवस ऑफिशियल बाल दिवस हुआ करता था, बालक जिसकी उत्साहित होकर  प्रतीक्षा करते थे। घर वाले नये कपड़े सिलवाते बच्चों के लिए। खाती के यहाँ लकड़ी के डांडिये गढ़वाए जाते। बच्चे अपने डांडिये सजाते- कोई डोरी से, कोई रंगीन कपड़ों से तो कोई मांडनों की कारीगरी से। चतड़ा चौथ की सुबह गाँव भर के बालक इकट्ठे होकर हाथ में झोली लिये घर-घर जाते और गाते-

चतड़ा चौथ भादूड़ो
दे दे माई लाडूड़ो

लोग प्रसन्न होकर गुड़-धाणी डालते, जिसे एक साथ बैठकर बांटकर खाया जाता।

हमारी पीढ़ी के भाग्य में ये दिन न आ पाए क्योंकि तब तक हम प्रगतिशील हो गए। उत्सव और उत्साह की बलि देकर हमने प्रगति चुनी। अन्य कई राज्यों में अब भी यह परंपरा निभाई जाती है, पर राजस्थान में तो जैसे हाथोंहाथ समाजवादी, पंथनिरपेक्ष और लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनने की होड़ लगी थी। इस होड़ ने हमसे हमारे उत्सव छीने, हमारी परंपरा छीनी, हमारे रंग छीने, हमारी पहचान छीनी, हमारे देव छीने, हमारे ग्रंथ छीने। कहाँ तक बताएं- भाषा और इतिहास तक छीनकर अपनी मिट्टी से पराया कर दिया। राजस्थानी डिंगल में गणेश वंदना सुनिए, आपका रोम-रोम पुलकित न हो जाए तो कहिये।
मैं विषय से दूर जाऊँ, इससे पहले चतड़ा चौथ की सभी को मोकळी शुभकामनाएं।

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