राजस्थान का घुश्मेश्वर या महाराष्ट्र का घृष्णेश्वर महादेव मंदिर कौनसा है द्वादशवां ज्योतिर्लिंग ? समझें इतिहास और दावों के बारे में

राजस्थान के सवाई माधोपुर जिले के शिवाड़ कस्बे में स्थित घुश्मेश्वर महादेव मंदिर (Ghusmeshwar Mahadev Temple, Shivad) को लेकर वर्षों से यह दावा किया जा रहा है कि यह भगवान शिव के द्वादशवें यानी 12वें ज्योतिर्लिंग (12th Jyotirlinga of Lord Shiva) का वास्तविक स्थल है। स्थानीय श्रद्धालु इस मंदिर को अत्यंत प्राचीन मानते हैं और इसे लेकर उनकी गहरी धार्मिक आस्था जुड़ी हुई है। वहीं, धार्मिक विद्वानों और भारत सरकार (Government of India) के दस्तावेजों में महाराष्ट्र के एलोरा (Ellora, Maharashtra) स्थित घृष्णेश्वर मंदिर (Grishneshwar Jyotirlinga Temple) को आधिकारिक ज्योतिर्लिंग माना गया है। इसी वजह से यह विषय लंबे समय से धार्मिक और ऐतिहासिक विवाद का कारण बना हुआ है।

शिव पुराण (Shiva Purana) की कोटिरुद्र संहिता में वर्णित कथा के अनुसार, सुधर्मा और सुदेहा नामक एक ब्राह्मण दंपत्ति संतान सुख से वंचित थे। सुदेहा ने अपनी बहन घुश्मा का विवाह सुधर्मा से करवाया। घुश्मा (Ghusma) भगवान शिव की परम भक्त थीं और वह प्रतिदिन 101 पार्थिव शिवलिंग (Parthiv Shivling) बनाकर पूजा करती थीं, जिन्हें पास के तालाब में विसर्जित कर देती थीं। जब सुदेहा ने ईर्ष्यावश घुश्मा के पुत्र की हत्या कर दी, तब भी घुश्मा ने अपनी भक्ति नहीं छोड़ी। भगवान शिव उनकी श्रद्धा से प्रसन्न होकर प्रकट हुए, पुत्र को पुनर्जीवित किया और उसी स्थान पर ज्योतिर्लिंग रूप में प्रकट हुए (Jyotirlinga Manifestation)। इसी कथा के आधार पर इस स्थान को ‘घुश्मेश्वर’ कहा गया।

यह कथा न केवल महाराष्ट्र के एलोरा मंदिर से जुड़ी है, बल्कि राजस्थान के शिवाड़ में भी समान रूप से प्रचलित है। यहां के श्रद्धालु मानते हैं कि यही वह स्थान है जहां भगवान शिव ने घुश्मा की भक्ति से प्रसन्न होकर स्वयं को प्रकट किया था। शिवाड़ स्थित इस मंदिर का ऐतिहासिक और पुरातात्विक महत्व (Archaeological Significance) भी बताया जाता है। वर्ष 1837 में मंदिर के पास बने सरोवर की खुदाई में लगभग 2000 पार्थिव शिवलिंग प्राप्त हुए थे। इसे घुश्मा की कथा से जोड़कर देखा जाता है और इसे एक मजबूत स्थानीय प्रमाण (Local Historical Evidence) माना जाता है।

बताया जाता है कि इस मंदिर का जीर्णोद्धार 12वीं सदी में राजा शिववीर चौहान (King Shivveer Chauhan) ने करवाया था। मंदिर की स्थापत्य शैली पारंपरिक है और परिसर में कई पुरानी मूर्तियां और शिलालेख भी मौजूद हैं, जो इसकी प्राचीनता को दर्शाते हैं।

हालांकि मंदिर को लेकर विवाद केवल इसकी मान्यता तक सीमित नहीं है। मंदिर की देखरेख को लेकर मंदिर ट्रस्ट और पूर्व राजपरिवार के बीच स्वामित्व विवाद (Temple Ownership Dispute) राजस्थान हाईकोर्ट में लंबित है। वर्ष 2018 से आम श्रद्धालुओं के प्रवेश और पूजा पर अस्थायी रोक (Public Access Restricted) लगी हुई है, जिससे स्थानीय श्रद्धालु नाराज हैं।

वहीं, महाराष्ट्र के संभाजीनगर (पूर्व में औरंगाबाद) जिले में स्थित घृष्णेश्वर मंदिर (Grishneshwar Jyotirlinga Temple, Ellora) को भारत सरकार, धार्मिक संस्थानों और पर्यटन विभाग (Ministry of Tourism) द्वारा द्वादश ज्योतिर्लिंग के रूप में मान्यता प्राप्त है। यह मंदिर एलोरा की विश्व प्रसिद्ध गुफाओं (UNESCO World Heritage Ellora Caves) के पास स्थित है और इसका पुनर्निर्माण 18वीं शताब्दी में मराठा रानी अहिल्याबाई होलकर (Ahilyabai Holkar) द्वारा कराया गया था।

मंदिर दक्षिण भारतीय शैली (Dravidian Temple Architecture) में बना हुआ है और इसकी स्थापत्य संरचना को अधिक प्रमाणिक माना जाता है। भारत सरकार द्वारा जारी डाक टिकटों और आधिकारिक धार्मिक दस्तावेजों में भी इसी मंदिर को अंतिम ज्योतिर्लिंग के रूप में दर्शाया गया है। हर साल लाखों श्रद्धालु यहां दर्शन के लिए पहुंचते हैं।

धार्मिक विद्वानों का मानना है कि ‘घुश्मेश्वर’ और ‘घृष्णेश्वर’ नामों में केवल भाषिक अंतर है। दोनों ही नाम एक ही कथा और आस्था से जुड़े हैं, और कथा की समानता इस बात की ओर इशारा करती है कि यह पौराणिक परंपरा भारत के अलग-अलग क्षेत्रों में फैली हुई थी, जिसे स्थानीय संदर्भों में अलग-अलग रूप में पूजा गया।

शिवाड़ के श्रद्धालु और संत समाज लगातार यह मांग कर रहे हैं कि केंद्र सरकार इस मंदिर की ऐतिहासिकता की गंभीर जांच करवाए और इसे भी आधिकारिक रूप से द्वादश ज्योतिर्लिंग का दर्जा दे। हालांकि अभी तक इस पर कोई ठोस पहल नहीं हुई है।

विवाद चाहे जो भी हो, लेकिन दोनों ही स्थानों पर भक्तों की गहरी श्रद्धा बनी हुई है, और दोनों ही मंदिर देश की धार्मिक विरासत (Religious Heritage of India) का हिस्सा हैं।

Share This Article
Leave a Comment