परिवार, समाज की वह आधारभूत इकाई है, जहां से मनुष्य का सामाजिक जीवन प्रारंभ होता है। परिवार केवल एक सांस्कृतिक धरोहर नहीं, बल्कि मानवीय संवेदनाओं, आदर्शों, और जीवन के आदान-प्रदान की महत्वपूर्ण कड़ी है। लेकिन आधुनिक समाज में परिवारों के टूटने और बिखरने की घटनाएं बढ़ी हैं, जिसका कारण न केवल व्यक्तिगत स्वतंत्रता की लालसा है, बल्कि एक सोची-समझी रणनीति भी है जिसने हमारे पारंपरिक परिवार व्यवस्था को नुकसान पहुँचाया है।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: अंग्रेजों की चाल
भारत में परिवार की एकता और आपसी सहयोग का स्वरूप अतीत में अत्यंत सशक्त था। गांव अपने आप में एक परिवार था, जिसमें सभी लोग एकजुट होकर अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करते थे। परंतु अंग्रेजों के शासनकाल में, 1793 के परमानेंट सेटलमेंट एक्ट ने इस व्यवस्था को गहरे प्रभावित किया। इस कानून ने जमीनों की माप-जोख शुरू की और उन्हें व्यक्तिगत संपत्ति घोषित कर दिया। पहले, गांवों की भूमि सभी की होती थी और सभी समुदाय आपसी सहयोग से कार्य करते थे। लेकिन इस कानून ने भूमि का अधिकार व्यक्तिगत बना दिया, जिससे भूमि का बंटवारा हुआ और भूमिधारक एवं भूमिहीन जैसे वर्ग बने। इससे सामाजिक समरसता टूटी, और कुटुंब की भावना कमजोर पड़ने लगी।
परिवार की आर्थिक इकाई पर प्रहार
गांवों में विभिन्न उद्योग और सेवा कार्य पारिवारिक एवं सामाजिक आधार पर संचालित होते थे। गांवों में कारीगर, किसान, और व्यापारी सभी मिलकर काम करते थे, जो स्थानीय अर्थव्यवस्था का हिस्सा था। यह व्यवस्था आर्थिक आत्मनिर्भरता का प्रतीक थी। अंग्रेजों ने इन उद्योगों को समाप्त कर दिया, और धीरे-धीरे व्यापार की व्यवस्था टूट गई। भारत का आर्थिक आधार कमजोर हुआ, और गांवों का परिवारिक रूप खो गया।
आधुनिक परिप्रेक्ष्य में परिवार पर वार
स्वतंत्रता के बाद भी परिवार व्यवस्था पर कई प्रकार के प्रभाव पड़े। बैंकिंग प्रणाली में पर्सनल अकाउंट का चलन इसी का एक उदाहरण है। पहले परिवारों में आर्थिक संसाधन एक ही खाते में साझा होते थे, जिससे पारिवारिक एकता बनी रहती थी। पर्सनल अकाउंट ने इस व्यवस्था को कमजोर कर दिया, जिससे परिवारों में अलगाव की भावना बढ़ी। आज कई लोग परिवार के भीतर रहकर भी आर्थिक रूप से अलग हो चुके हैं, जिससे पारिवारिक मूल्य कमजोर पड़ रहे हैं।
मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से टूटन
सरकारी योजनाओं में भी परिवार को धीरे-धीरे अलग-अलग इकाइयों में बांटने की प्रक्रिया चली। उदाहरण के लिए, राशन कार्ड प्रणाली ने परिवार की अवधारणा को व्यक्तियों में बांट दिया। जैसे ही परिवार में किसी सदस्य की शादी होती है, उसके लिए नया राशन कार्ड बनता है, जिससे मनोवैज्ञानिक रूप से परिवार को अलग इकाई माना जाने लगता है। यह व्यवस्था मानसिक तौर पर परिवारों को बांटने का काम करती है।
राजनीतिक व्यवस्था और परिवार
स्थानीय स्तर पर लोकतंत्र के आगमन से भी परिवारों में विभाजन हुआ। पंचायत चुनावों में पारिवारिक स्तर तक गोलबंदी होती है। चुनावी प्रतिस्पर्धा और विचारधारा के अंतर से परिवारों में फूट पड़ती है। चुनावों के बाद परिवारों में यह तनाव लंबे समय तक बना रहता है, जो पारिवारिक एकता को कमजोर करता है।
समाधान की दिशा में प्रयास
इन सब तथ्यों को ध्यान में रखते हुए, परिवार को एक बार फिर से संगठित करने की आवश्यकता है। यह केवल व्यक्तिगत स्तर पर नहीं बल्कि सामाजिक और सरकारी नीतियों में बदलाव की मांग करता है। परिवारों की एकता के बिना समाज का विकास संभव नहीं है। इसके लिए नीति निर्माताओं को ऐसी योजनाओं पर कार्य करना चाहिए, जो परिवार की परंपरागत एकता को मजबूत बनाए रखे।
यह आलेख हमें स्मरण कराता है कि परिवार टूटे नहीं, बल्कि एक सोची-समझी रणनीति के तहत तोड़े गए हैं। अब आवश्यकता है कि हम अपने मूल्यों और परंपराओं की ओर लौटें और एक सशक्त परिवार, समाज और राष्ट्र का निर्माण करें।