गोरक्षा आंदोलन: गोपाष्टमी पर संतों पर चलाई गई गोलियां, इतिहास का काला अध्याय

रमेश शर्मा

Gau Raksha Andola: गोमाता की रक्षा के लिए हुए सबसे बड़े आंदोलनों में से एक, 1966 के गोरक्षा आंदोलन ने उस समय के भारतीय राजनीति और समाज को झकझोर कर रख दिया था। 7 नवंबर 1966, गोपाष्टमी (Gopashtami) के दिन, जब देशभर से लाखों साधु-संत और गोभक्त संसद भवन के समक्ष गोरक्षा कानून (Goraksha Kanoon) की मांग के लिए एकत्रित हुए, तब उन्हें शांतिपूर्ण ढंग से अपने विचार रखने का अवसर न मिल सका। पुलिस ने भीड़ को तितर-बितर करने के लिए लाठीचार्ज और गोलीबारी की, जिसमें कई साधु अपनी जान गंवा बैठे और सैकड़ों घायल हो गए। इस घटना ने देशभर में गहरा आक्रोश उत्पन्न किया और तत्कालीन गृहमंत्री गुलजारी लाल नंदा को इस्तीफा देने पर मजबूर होना पड़ा।

सनातन परंपरा में गाय का महत्व अद्वितीय है। ऋग्वेद से लेकर श्रीमद्भगवत गीता तक के ग्रंथों में गाय की महिमा का उल्लेख है। गाय को सनातन धर्म में पवित्र और पूजनीय माना जाता है, लेकिन विदेशी आक्रांताओं और उपनिवेशकालीन सत्ता के दौरान गाय की स्थिति पर संकट के बादल छा गए। इतिहास में गोरक्षा के लिए कई बार संघर्ष हुए, खासकर सल्तनतकाल और अंग्रेजों के शासन में। अंग्रेजों ने बड़े पैमाने पर गोमांस का व्यापार शुरू कर दिया और देश में कई स्लॉटर हाउस बनाए गए, जिनमें गायों का वध कर मांस का निर्यात किया जाने लगा। स्वतंत्रता के बाद, कई संतों ने गोहत्या पर प्रतिबंध लगाने की मांग की, लेकिन सरकार की ओर से ठोस कदम नहीं उठाए गए।

इस आंदोलन की अगुवाई स्वामी करपात्री जी महाराज और स्वामी प्रभुदत्त ब्रह्मचारी ने की। दोनों संतों ने गोरक्षा कानून के लिए सभी प्रमुख धर्मगुरुओं और धार्मिक संगठनों को एक मंच पर लाने का प्रयास किया, जिसमें जैन, बौद्ध, सिख, आर्य समाज सहित विभिन्न संगठनों ने समर्थन दिया। करपात्री जी महाराज ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं से भी संपर्क साधा। इस आंदोलन को गति देने के लिए “सर्वदलीय गोरक्षा महा अभियान समिति” का गठन किया गया, जिसमें भारतीय जनसंघ, रामराज्य परिषद, हिंदू महासभा जैसे दल खुलकर समर्थन में आए।

अक्टूबर 1966 में यह आंदोलन आरंभ हुआ और इसका चरम प्रदर्शन गोपाष्टमी के दिन संसद भवन पर रखा गया। 7 नवंबर को देशभर से आए लाखों गोभक्त लाल किला, चांदनी चौक, और संसद भवन के मार्ग पर एकत्रित हो गए। इस आंदोलन के मुख्य समन्वयक स्वामी करपात्री जी के नेतृत्व में तीन शंकराचार्य सहित कई धार्मिक नेता इस आंदोलन का हिस्सा बने।

सुबह से ही संतों और गोभक्तों का संसद के पास जमावड़ा शुरू हो गया और दोपहर एक बजे से संतों के संबोधन भी प्रारंभ हो गए। सभा शांतिपूर्ण तरीके से चल रही थी। दोपहर लगभग तीन बजे, आर्यसमाज के स्वामी रामेश्वरानन्द ने अपना संबोधन दिया, जिसमें उन्होंने सरकार की गोहत्या पर उदासीनता की आलोचना की। इसी दौरान कुछ लोगों ने संसद भवन में घुसने का प्रयास किया, जिसके बाद पुलिस ने लाठीचार्ज शुरू कर दिया और भीड़ को काबू में करने के लिए गोलियां भी चलाईं।

सरकारी आंकड़ों के अनुसार इस गोलीकांड में आठ लोगों की मृत्यु हुई, जबकि प्रत्यक्षदर्शियों का कहना था कि यह संख्या कहीं अधिक थी। इस हिंसक घटना के बाद दिल्ली में कर्फ्यू लगाया गया और कई संतों को गिरफ्तार कर तिहाड़ जेल भेजा गया। तिहाड़ में जगह कम पड़ने पर अस्थायी जेलें बनाकर गोभक्तों को रखा गया।

इस घटना के बाद गोरक्षा आंदोलन ने और गंभीर रूप ले लिया। प्रभुदत्त ब्रह्मचारी सहित कई संतों ने अनशन शुरू किया, जो लंबे समय तक चला। रामचंद्र वीर का अनशन तो 166 दिनों तक चला। इस आंदोलन के विरोध में संतों और गोभक्तों ने देश के कोने-कोने में सरकार के प्रति अपनी नाराजगी व्यक्त की। इस आंदोलन का पूरा विवरण मासिक पत्रिका ‘आर्यावर्त’ और गीता प्रेस गोरखपुर के ‘कल्याण’ पत्रिका के गो विशेषांक में प्रकाशित हुआ।

इस आंदोलन ने देशभर में गोरक्षा के प्रति जनभावनाओं को जाग्रत किया और राजनीतिक रूप से भी प्रभाव डाला। हालांकि, इस घटना के बाद भी गोरक्षा पर सरकार द्वारा ठोस कानून नहीं बनाया गया, लेकिन यह आंदोलन आज भी भारत के धार्मिक और सांस्कृतिक इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान रखता है।

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