बाबा कार्तिक उरांव: वनवासी अस्मिता की बुलंद आवाज

प्रशांत पोळ / भारत के प्रमुख वनवासी नेता और स्वतंत्रता संग्राम के बाद देश की राजनीति में वनवासी समुदाय की आवाज बने बाबा कार्तिक उरांव का आज जन्म शताब्दी वर्ष है। उनकी जन्म जयंती, 29 अक्तूबर को मनाई जाती है। कार्तिक उरांव ने जीवन भर वनवासी समुदाय के हक और सम्मान के लिए संघर्ष किया और तीन बार लोकसभा के लिए चुने गए। उनकी मृत्यु के समय वे भारत सरकार में नागरिक उड्डयन एवं संचार मंत्री के पद पर थे। उनकी आवाज़, उनके विचार और उनकी राजनीति ने भारतीय जनजातीय समाज के सम्मान और अधिकारों की नींव रखी।

प्रारंभिक जीवन और शिक्षा

गुमला, बिहार (अब झारखंड) में जन्मे कार्तिक उरांव ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा ठक्कर बाप्पा के आश्रम से ली और उनकी प्रेरणा से इंजीनियरिंग में कई डिग्रियां प्राप्त कीं। इसके बाद, वे उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड गए, जहां नौ वर्षों तक उन्होंने इंजीनियरिंग के क्षेत्र में गहन अध्ययन किया। उन्होंने विश्व के सबसे बड़े न्यूक्लियर पावर प्लांट का प्रारूप तैयार किया, जिसे आज ‘हिंकले न्यूक्लियर पावर स्टेशन’ के नाम से जाना जाता है। उनकी विदेश में उपलब्धियों के बावजूद, उन्होंने देश की सेवा का संकल्प लिया और प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के आग्रह पर भारत लौटे।

भारतीय राजनीति में प्रवेश

1962 में कार्तिक उरांव ने पहली बार चुनाव लड़ा, हालांकि वह हार गए। 1967 में, वे कांग्रेस के टिकट पर लोहरदगा लोकसभा सीट से सांसद बने। वनवासी क्षेत्र में उनकी लोकप्रियता इतनी बढ़ी कि वे जनता लहर के बावजूद 1977 को छोड़कर अपनी मृत्यु तक लगातार संसद में बने रहे।

उनकी राजनैतिक यात्रा में मुख्य रूप से वनवासी समुदाय के अधिकारों और अस्मिता की रक्षा करना उनका ध्येय था। उन्होंने महसूस किया कि कांग्रेस एक मुख्यधारा की पार्टी है, जिसके माध्यम से वे अपने समुदाय के लिए विकास कार्य कर सकते हैं।

वनवासियों के लिए अद्वितीय विधेयक

बाबा कार्तिक उरांव ने वनवासी समाज के धर्मांतरण के मुद्दे पर दृढ़ता से आवाज उठाई। 1967 में, उन्होंने ‘अनुसूचित जाति/जनजाति आदेश संशोधन विधेयक’ पेश किया, जिसमें प्रस्ताव था कि जो जनजातीय व्यक्ति इस्लाम या ईसाई धर्म अपना लेता है, उसे अनुसूचित जनजाति का दर्जा और उससे जुड़ी सुविधाओं से वंचित कर देना चाहिए।

इस प्रस्ताव ने ईसाई मिशनरियों और विदेशों में सक्रिय शक्तियों में खलबली मचा दी। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पर भारी दबाव बनाया गया ताकि इस विधेयक को खारिज किया जा सके। लेकिन कार्तिक उरांव ने अपने राजनीतिक भविष्य को दांव पर लगाकर यह विधेयक संसद में प्रस्तुत किया। उनके प्रयास के बावजूद, विधेयक पारित नहीं हो सका। 1970 में इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली सरकार ने संयुक्त समिति की सिफारिशों को अस्वीकार कर दिया और कांग्रेस ने इसे एक ओर रख दिया।

सांस्कृतिक जागरूकता और परंपराओं का संरक्षण

कार्तिक उरांव वनवासी समाज को अपनी सांस्कृतिक पहचान बनाए रखने के लिए प्रेरित करते रहे। उन्होंने जनजातीय समाज में हिन्दू धर्म की जड़ें मजबूत करने के लिए अनेक प्रयास किए। एक सांस्कृतिक आंदोलन के तहत, उन्होंने वनवासियों के बीच होने वाले मंगल गीतों का संकलन करवाया, जिनमें से अधिकांश गीतों में हिन्दू धार्मिक प्रतीक जैसे श्रीकृष्ण, माता सीता और भगवान राम का वर्णन होता था। उन्होंने यह सिद्ध किया कि वनवासी समाज की जड़ें हिन्दू संस्कृति में ही हैं।

उनके सांस्कृतिक दृष्टिकोण का उल्लेख उनकी पुस्तक ‘बीस वर्ष की काली रात’ में भी मिलता है, जिसमें उन्होंने ईसाई मिशनरियों द्वारा वनवासी समाज के बीच बढ़ते धर्मांतरण का खुलासा किया।

हिन्दू परंपराओं के प्रति निष्ठा

जीवन के अंतिम वर्षों में उन्होंने वनवासी समुदाय के साथ हिन्दू त्योहारों और परंपराओं के महत्व पर जोर दिया। एक भाषण में उन्होंने कहा था, “हम एकादशी को अन्न नहीं खाते, भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा, विजया दशमी, राम नवमी, रक्षाबंधन, देवोत्थान पर्व, होली, दीपावली…. हम सब धूमधाम से मनाते हैं। हम हिन्दू पैदा हुए, और हिन्दू ही मरेंगे।”

एक सशक्त और समर्पित नेता

बाबा कार्तिक उरांव का जीवन समाज की सेवा में समर्पित था। उन्होंने जनजातीय समाज की सुरक्षा, सांस्कृतिक अस्मिता और धर्मांतरण के विरोध में महत्वपूर्ण कदम उठाए। उनकी दृष्टि ने वनवासी समाज के कई युवाओं को जागरूकता की राह दिखाई। वे न केवल एक राजनेता थे, बल्कि वनवासी समुदाय की अस्मिता के प्रहरी और संरक्षक थे।

कांग्रेस पार्टी भले ही उनके योगदान को भुला दे, लेकिन झारखंड के वनवासी क्षेत्र में और देश भर में उनके चाहने वालों के दिलों में वे आज भी जीवित हैं।

यह भी पढ़ें

Related Articles