समरसता के लिए पहली आवश्यकता आपसी प्रेम होता है। समरसता प्रेम को दर्शाती एक ऐसी ही प्रेम कथा ‘बंगाल 1947 – एक अनकही प्रेम कहानी’ भारतीय सिनेमाघरों में 29 मार्च को आई। बंगाल क्षेत्र को केंद्र में रखकर पटकथा लिखी है, जो शबरी और मोहन नामक पात्र की जातिगत भेद मिटाने की भारतीय दर्शन आधारित तथ्यों से प्रयास करते दिखती है। फिल्म की पृष्ठभूमि 1947 के आसपास की है, जब बंटवारे के लिए भारत के नेताओं ने अपने लाभ के लिए जाति, संप्रदाय, मत, पंथ में दूरियां बढ़ाने का काम किया। वे लोग जो सामाजिक समरसता के लिए काम करते, उन्हें कम महत्व दिया जाता।
विभाजन का कष्ट
फिल्म प्रेम कथा के साथ विभाजन का कष्ट को भी मजबूती से दिखाती है। अपने देश और यौवन के प्रेम को सीमाओं में विभाजन होते देखना कष्टदायक है। विभाजन के षड्यंत्र को आम जनता नहीं समझ पाई और आपस में अपने मत के अनुयायी का अंधानुकरण करके पूरे पूरे गांव वीरान हो गए। पहले पाकिस्तान बना, फिर बांग्लादेश और वहां के मूल लोग नए देशों में बसते चले गए।
शिक्षा भेद मिटाने का उपाय
फिल्म की कहानी जमींदार कुल के मोहन जिसका रोल अंकुर ने निभाया है, उसके अभी-अभी लंदन से शिक्षा प्राप्त कर लौटने के बाद हवेली में शास्त्रीय संगीत सीखते हुए प्रारंभ होती हैं। मोहन विदेश में पढ़कर आया, लेकिन अपनी जड़ों से जुड़ा नवयुवक है। गांव के बाहर की बस्ती में जब मोहन पहुंचता है, तो वहां के लोग जो सरकारी कागजों और कार्य से निम्न जाति के लोग है, गलती से उसे मास्टर समझ लेते हैं । उन लोगों का प्रेम और बच्चों की पढ़ने की ललक ने मोहन को उस स्थिति को यथावत बने रहने देना ही उचित समझा। इसी बीच मोहन को वहां की एक युवती शबरी जिसकी भूमिका सुरभी कृष्णा ने निभाई है, जो अपनी सहेलियों के साथ पढ़ने की इच्छा जताती है। मोहन को पढ़ाने को तैयार हो जाता है, लेकिन वहां के पुरुष स्त्री शिक्षा का विरोध कर रहे थे। मोहन ने वेद युगीन विदुषी महिलाओं के उदाहरण देकर उनके शिक्षा के द्वारा खोले। यहाँ से शबरी और मोहन की प्रेम कथा प्रारंभ हुई।
तत्कालीन राजनीति ने दंगे भड़काए
कहानी का दूसरा भाग समांतर में चलता है, जहां देश के तत्कालीन राजनीति का हल्का चित्रण चलता है। स्थानीय नेता जो अपने-अपने मत पंथों को लोगों को बहलाते नजर आते हैं । कथित नीची जाति के लोगों को हिंदू धर्म के प्रति हीन भावना भर कर संभावित पाकिस्तान की सीमा में बंगाल के उस क्षेत्र को शामिल करने के लिए योगेंद्रनाथ मंडल के इशारे पर होता था। मोहन बस्ती के लोगों को इस विषय पर भारत की बात तथ्यों के साथ रखता, जिसमें मत पंथ से ऊपर भारत दर्शन है यह समझाते हुए फिल्म में कई दृश्य दिखते है। बस्ती के मुसलमान सभी जातियों के साथ सद्भाव से रहते थे। नेताओं ने आकर उनके बीच दंगों के बीज बोए, जिसका परिणाम यह था कि वह गांव उजाड़ हो गया। ना तो वह गांव विभाजन की सीमा में पाकिस्तान गया, ना बांग्लादेश। वहां बस शबरी और मोहन की प्रेम कहानी अधूरी रह गई। दंगे भड़काने वालों को सिवाय अफसोस और लाशों के कुछ नहीं मिला। गांव में लाशों का अंतिम संस्कार करते हुए मोहन का समय बीता। फिल्म प्रेम के दृश्यों को दिखाने में जितना सफल रही, विभाजन की मार्मिकता भी उतनी ही जीवंत लग रही थी।
लेखक और निर्देशक आकाशादित्य ने उनके नाटक शबरी का मोहन फिल्म रूप में बहुत सुंदरता से प्रदर्शित किया। साथ में भारतीय मूल्यों के जुड़े रहने का संदेश देने में भी यह फिल्म प्रखर रही। फिल्म सिनेमाहॉल में जाकर देखने पर असल अनुभूति होगी।
इंदु ‘मणि’