करौली का जगदीश जी मेला: भक्ति, संस्कृति और सामाजिक समरसता का अद्भुत संगम

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चन्द्रमादास की भक्ति और मंदिर की स्थापना

किवदंती के अनुसार, चन्द्रमादास का जन्म गंगापुर उपखंड के नांगतलाई गांव में संवत 1701 में हुआ था। भगवान जगन्नाथ के प्रति उनकी अटूट श्रद्धा थी। 13 वर्ष की आयु में, वे गुरु बृजदास की शरण में गए और भक्ति का मार्ग अपनाया। संवत 1725 में, उन्होंने भगवान जगदीश से मिलने के लिए कनकदण्डवत करते हुए उड़ीसा के जगदीश धाम जाने का संकल्प लिया।

कठिन यात्रा के बाद, वे जगन्नाथपुरी पहुँचे, जहाँ भगवान ने उन्हें दर्शन दिए और वरदान मांगने को कहा। चन्द्रमादास ने जगन्नाथ धाम जैसी ही तीन मूर्तियाँ मांगी। भगवान ने उन्हें आशीर्वाद दिया और उन्होंने नांगतलाई होते हुए माघ सुदी 4 संवत 1735 को कैमरी गांव में मूर्तियों की स्थापना की। उसी दिन बसंत पंचमी थी, और तभी से यहाँ हर वर्ष यह मेला लगता है।

मेले का महत्व

यह मेला भगवान जगदीश के प्रति भक्तों की भक्ति, श्रद्धा और संकल्प का प्रतीक है। इस दिन श्रद्धालु विशेष पूजा-अर्चना करते हैं और भगवान के दर्शन कर आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। मेले के दौरान भगवान जगदीश की भव्य रथ यात्रा निकाली जाती है, जो श्रद्धालुओं के आकर्षण का मुख्य केंद्र होती है।

सांस्कृतिक कार्यक्रम और सामाजिक समरसता

मेले में विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं, जिनमें संगीत, नृत्य और अन्य लोक कला के प्रदर्शन शामिल होते हैं। यह स्थानीय कला और संस्कृति को बढ़ावा देता है। मेले में अटका प्रसादी वितरित की जाती है, जिसे भगवान की भक्ति और आशीर्वाद का रूप माना जाता है।

धार्मिक गतिविधियाँ

मेले के दौरान विभिन्न धार्मिक गतिविधियाँ जैसे भजन-कीर्तन, भगवान की पूजा और माला बोली आदि भी आयोजित की जाती हैं। इन गतिविधियों में भाग लेकर श्रद्धालु अपने जीवन में सुख-समृद्धि और शांति की कामना करते हैं।

सामाजिक एकता का प्रतीक

यह मेला न केवल धार्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि समाज की एकजुटता को भी प्रदर्शित करता है। मेले में समाज के विभिन्न वर्गों के लोग अपनी भागीदारी निभाते हैं और सामाजिक समरसता का अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।

करौली का जगदीश जी मेला राजस्थान की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जो भक्ति, संस्कृति और सामाजिक समरसता का प्रतीक है।

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